आज समाँ में कुछ नए रंग बिखरे से थे
हाथों में हिना का रंग निखर के आया था
रोम रोम गुनगुना रहा था
कह रहा था, 'यह रात फिर ना आएगी'
'यह हसींन महफिल फिर यूँ न सजेगी
थोडा गुरूर था, थोड़ी शरारत
और क्यों न हो, नथ उतरने कि रस्म जो थी
आँखों में जन्नत के ख्वाब थे
धड़कन में कुछ कशिश, ज़ुबा पर ख़ामोशी थी
और दिल में किसी के आने का इंतज़ार
हर तवायफ कि तरह मुझे भी इश्क़ न करने कि इदायत दी गयी थी
मेरी अम्मी अपने समय कि मशहूर देदार गायिका थी
अम्मी कहती थी कि कई बरस पहले हम आगरा से
अपनी किस्मत आज़माने लखनऊ रवाना हुए थे
कुछ समय लगा, फिर अम्मी और उस्ताद कि जोड़ी ने
बनारस तक चाहने वालों कि भीड़ जमा कर दी थी
अब मैं कब और कैसे पैदा हुई, न ही बताऊँ तो बेहतर है
अम्मी कहती हैं कोई तो बेहूदा नवाब था
जो जवानी ढलते ही छोड़ गया
कहते हैं, नवाब तमीज और तहज़ीब सीखने
तवायफ के पास भेज दिए जाते थे
और फिर यहीं क हो क रेह जाते थे
यह इंतज़ार कि रात बीती, चौदह साल पर पहली बार
नवाब के संग हमबिस्तर हुई, उसके बाद कभी पीछे मुड़ क न देखा
नवाब ने पूरे पाँच सौ रूपए दिए थे नाथ उतरने क लिए
पाँच साल नवाब हर महीने कोठे पर हमारी खातिर एक अच्छी रकम दे जाते थे
उस्ताद कहते हैं, मैं अम्मी से भी कहीं खूबसूरत हूँ
और हमारे नाच और आवाज़ पर कोई भी फिदा हो जायेगा
हमें ख़याल और ठुमरी गाना बेहद पसंद था
लगता था मानो ज़न्नत से रूबरू हो गयी हूँ
पता नहीं कैसे, मगर गाते समय दर्द बाहर निकल आता था
यह दर्द ही है जो मुखोटे के अंदर छिपी औरत को लफ़्ज़ों में बयान कर देता है
यह दर्द ही है जो कदरदानों को कोठे तक खीच कर ले आता है
मेरी मानो, तोह यह बात गाठ बाँध लो
जब तक हुस्न है, अदा है, आवाज़ है
परवानों की कमी न होगी
और हुस्न ढालते ही, कोई मुँह न देखेगा
पाँच साल बाद, हमें एक और नवाब साहेब मिले
उम्र में कुछ बड़े, और खर्च में कुछ कम
मगर चारा भी क्या था, कोठे कि रौनक
और अपनी सजावट में खर्च तो होता ही है
चौतीस साल कि उम्र तक, कई नवाब आये और गए
और फिर हर तवायफ कि तरह हमारा कोठा भी
शमा जलते ही किसी के आने कि आहात का
इंतेज़ज़र ही करता रेह गया...
जब रात को सोती हूँ तो सपने में अपने को
उसी लबाज़ में देखती हूँ जब पहली बार
हमारे नाम कि शमा जाली थी
अपने को अपनी पसंदीदा दादर-ठुमरी गाते देखती हूँ
हर अदा पर, नज़ाकत पर, नवाबों और बाबुओं को
वाह - वाह करते देखती हूँ
हर पल, हर लमह कसक- कसक कर, अपने
हाथों होने हवा के महल को ढेलते देखती हूँ
रात को अँधेरे में दर्द चुप जाता है,
और न छुपे तो भी गम नहीं, आसूं बन के बेह जाता है
सड़क पर आज लोग अपनी आखों से मेरे जिस्म को
भेद देते हैं, मालोम पड़ता है में बिन कपडे जानवरो के बीच आ गयी हूँ
एक समय था, जब यह सब इज़ज़त से देखते थे
मेरी कला कि कद्र करते थे
मेरा मशहूर गायिका में नाम होता था
सब समय का खेल है, समय हर रंग- रूप, धूप- छाव दिखा देता है
कभी लगता है कि मैं अपने को ही बहला लेती हूँ
जब तवायफ के संग इज़ज़त लफज़ जोड़ती हूँ
इज़ज़त थी, पर कभी किसी ने हाथ न थामा
इज़ज़त थी, पर कभी नमाज़ पढ़ने मस्जिद न जाने दिया
इज़ज़त थी, पर किसी ने नाभि दो शब्द अपनेपन से न बोले
इज़ज़त थी, पर बेबसी के वक़्त भी कोई पूछने न आया
इज़ज़त थी, पर हमें औरत न समझा गया
इज़ज़त थी, पर कभी किसी ने इन्सान भी न समझा
मजबूरी ही तोह है कि आज मैं अपनी बेटी का मुह देखती हूँ
कब यह जवान होगी और कब इस महफिल में फिर से शमा जलेगी
अब एक ही दुआ है अल्लाह ताला से,
इसे कभी न ढलने वाले हुस्न से नवाज़े
जो मेरा था, वोह उसका हो जाए
मेरी कला, मेरी गायकी, मेरा नाच, मेरी बेटी दोहराए

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